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वन्दे मातरम्

वन्दे मातरम् ( बाँग्ला: বন্দে মাতরম) 

बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय द्वारा संस्कृत बाँग्ला मिश्रित

भाषा में रचित इस गीत का प्रकाशन सन् १८८२ में उनके

उपन्यास आनन्द मठ में अन्तर्निहित गीत के रूप में हुआ[

था। इस उपन्यास में यह गीत भवानन्द नाम के संन्यासी

द्वारा गाया गया है। इसकी धुन यदुनाथ भट्टाचार्य ने बनायी

थी।सन् २००३ में, बीबीसी वर्ल्ड सर्विस द्वारा आयोजित

एक अन्तरराष्ट्रीय सर्वेक्षण में, जिसमें उस समय तक के

सबसे मशहूर दस गीतों का चयन करने के लिये दुनिया

भर से लगभग७,००० गीतों को चुना गया था और

बी०बी०सी० के

अनुसार१५५ देशों/द्वीप के लोगों ने इसमें मतदान किया

था उसमें वन्दे मातरम् शीर्ष के १० गीतों में दूसरे स्थान

पर था। गीत यदि बाँग्ला भाषा को ध्यान में रखा जाय

तो इसका शीर्षक बन्दे मातरम्होना चाहिये वन्दे

मातरम्न हीं।

चूँकि हिन्दी व संस्कृत भाषा में वन्दे शब्द ही सही है,

लेकिन यह गीत मूलरूप में बाँग्ला लिपि में लिखा गया था

और चूँकि बाँग्ला लिपिमें व अक्षर है ही नहीं अत:

बन्दे मातरम्शीर्षक से ही बंकिम चन्द्र चट्टोपाध्याय ने

इसे लिखा था। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए शीर्षक

बन्दे मातरम् होना चाहिये था। परन्तु संस्कृत में

बन्दे मातरम् का कोई शब्दार्थ नहीं है तथा वन्दे मातरम्

उच्चारणकरने से माता की वन्दना करता हूँ ऐसा अर्थ

निकलता है,अतः देवनागरी लिपि में इसे वन्दे मातरम्

ही लिखना व पढ़ना समीचीन होगा। 

संस्कृत मूल गीत[4]

बांग्ला लिपि

বন্দে মাতরম্৷

সুজলাং সুফলাং

মলয়জশীতলাম্

শস্যশ্যামলাং

মাতরম্!

 

শুভ্র-জ্যোত্স্না-পুলকিত-যামিনীম্

ফুল্লকুসুমিত-দ্রুমদলশোভিনীম্,

সুহাসিনীং সুমধুরভাষিণীম্

সুখদাং বরদাং মাতরম্৷৷

 

সপ্তকোটীকন্ঠ-কল-কল-নিনাদকরালে,     

দ্বিসপ্তকোটীভুজৈধৃতখরকরবালে,

অবলা কেন মা এত বলে!

বহুবলধারিণীং

নমামি তরিণীং

রিপুদলবারিণীং

মাতরম্৷

 

তুমি বিদ্যা তুমি ধর্ম্ম

তুমি হৃদি তুমি মর্ম্ম

ত্বং হি প্রাণাঃ শরীরে৷

বাহুতে তুমি মা শক্তি,

হৃদয়ে তুমি মা ভক্তি,

তোমারই প্রতিমা গড়ি মন্দিরে মন্দিরে৷

 

ত্বং হি দুর্গা দশপ্রহরণধারিণী

কমলা কমল-দলবিহারিণী

বাণী বিদ্যাদায়িণী

নমামি ত্বাং

নমামি কমলাম্

অমলাং অতুলাম্,

সুজলাং সুফলাং

মাতরম্

 

বন্দে মাতরম্

শ্যামলাং সরলাং

সুস্মিতাং ভূষিতাম্

ধরণীং ভরণীম্

মাতরম্৷ 

 

देवनागरी लिपि

वन्दे मातरम्

सुजलां सुफलाम्

मलयजशीतलाम्

शस्यश्यामलाम्

मातरम्।

 

शुभ्रज्योत्स्नापुलकितयामिनीम्

फुल्लकुसुमितद्रुमदलशोभिनीम्

सुहासिनीं सुमधुर भाषिणीम्

सुखदां वरदां मातरम्॥ १॥ 

 

सप्त-कोटि-कण्ठ-कल-कल-निनाद-कराले

द्विसप्त-कोटि-भुजैर्धृत-खरकरवाले,

अबला केन मा एत बले।

बहुबलधारिणीं 

नमामि तारिणीं

रिपुदलवारिणीं 

मातरम्॥ २॥

 

तुमि विद्या, तुमि धर्म

तुमि हृदि, तुमि मर्म

त्वम् हि प्राणा: शरीरे

बाहुते तुमि मा शक्ति,

हृदये तुमि मा भक्ति,

तोमारई प्रतिमा गडी मन्दिरे-मन्दिरे॥ ३॥

 

त्वम् हि दुर्गा दशप्रहरणधारिणी

कमला कमलदलविहारिणी

वाणी विद्यादायिनी,

नमामि त्वाम्

नमामि कमलाम्

अमलां अतुलाम्

सुजलां सुफलाम् 

मातरम्॥४॥

वन्दे मातरम्

श्यामलाम् सरलाम्

सुस्मिताम् भूषिताम्

धरणीं भरणीं 

मातरम्॥ ५॥ 

हिन्दी अनुवाद

आनन्दमठ के हिन्दी, मराठी, तमिल, तेलुगु, कन्नड आदि

अनेक भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेजी-अनुवाद भी

प्रकाशित हुए। डॉ॰ नरेशचन्द्र सेनगुप्त ने सन् १९०६ में

Abbey of Bliss के नाम से इसका अंग्रेजी-अनुवाद

प्रकाशित किया। अरविन्द घोष ने आनन्दमठ में वर्णित

गीत

वन्दे मातरम् का अंग्रेजी गद्य और पद्य में अनुवाद किया।

महर्षि अरविन्द द्वारा किए गये अंग्रेजी गद्य-अनुवाद का

हिन्दी-अनुवाद इस प्रकार है 

मैं आपके सामने नतमस्तक होता हूँ। ओ माता!

पानी से सींची, फलों से भरी,

दक्षिण की वायु के साथ शान्त,

कटाई की फसलों के साथ गहरी,

माता!

उसकी रातें चाँदनी की गरिमा में प्रफुल्लित हो रही हैं,

उसकी जमीन खिलते फूलों वाले वृक्षों से बहुत सुन्दर

ढकी हुई है, हँसी की मिठास, वाणी की मिठास,

माता! वरदान देने वाली, आनन्द देने वाली। 

भारतीय स्वाधीनता संग्राम में भूमिका

बंगाल में चले स्वाधीनता-आन्दोलन के दौरान विभिन्न

रैलियों में जोशभरने के लिए यह गीत गाया जाने लगा।

धीरे-धीरे यह गीत लोगों मेंअत्यधिक लोकप्रिय हो गया।

ब्रिटिश सरकार इसकी लोकप्रियता सेभयाक्रान्त हो उठी

और उसने इस पर प्रतिबन्ध लगाने पर विचारकरना शुरू

कर दिया। सन् १८९६ में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के

कलकत्ता अधिवेशन में गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने यह

गीत गाया। पाँच साल बाद यानी सन् १९०१ में कलकत्ता

में हुए एक अन्य अधिवेशन में श्री चरणदास ने यह

गीत पुनः गाया। सन् १९०५ के बनारस अधिवेशन में

इस गीत को सरलादेवी चौधरानी ने स्वर दिया।

कांग्रेस-अधिवेशनों के अलावा आजादी के आन्दोलन

के दौरान इस गीत के प्रयोग के काफी उदाहरण मौजूद हैं।

लाला लाजपत राय ने लाहौर से जिस जर्नल का

प्रकाशन शुरू किया था उसका नाम वन्दे मातरम् रखा।

अंग्रेजों की गोली का शिकार बनकर दम तोड़नेवाली

आजादी की दीवानी मातंगिनी हाजरा की जुबान

पर आखिरी शब्द वन्दे मातरम्ही थे। सन् १९०७ में मैडम

भीखाजी कामा ने जब जर्मनी के स्टुटगार्ट में तिरंगा

फहराया

तो उसके मध्य में वन्दे मातरम् ही लिखा

हुआ था। आर्य प्रिन्टिंग प्रेस, लाहौर तथा भारतीय प्रेस,

देहरादून से सन् १९२९ में प्रकाशित काकोरी के शहीद

पं० राम प्रसाद बिस्मिल की प्रतिबन्धित पुस्तक क्रान्ति

गीतांजलि में पहला गीत मातृ-वन्दना

वन्दे मातरम् ही था जिसमें उन्होंने केवल इस गीत के

दो ही पद दिये थे और उसके बाद इस गीत की प्रशस्ति में

वन्दे मातरम् शीर्षक से एक स्वरचित उर्दू गजल दी थी जो

उस कालखण्ड के असंख्य अनाम हुतात्माओं की आवाज

को अभिव्यक्ति देती है। ब्रिटिश काल में प्रतिबन्धित

यह पुस्तक अब सुसम्पादित होकर

पुस्तकालयों में उपलब्ध है।

राष्ट्रगीत के रूप में स्वीकृति

स्वाधीनता संग्राम में इस गीत की निर्णायक भागीदारी के

बावजूद जब राष्ट्रगान के चयन की बात आयी तो वन्दे

मातरम् के स्थान पर

रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा लिखे

व गाये गये गीत जन गण मन को वरीयता दी गयी।

इसकी वजह यही थी कि

कुछ मुसलमानों को वन्दे मातरम् गाने पर आपत्ति थी,

क्योंकि इस

गीत में देवी दुर्गाको राष्ट्र के रूप में देखा गया है।

इसके अलावा उनका यह भी मानना था कि यह गीत

जिस आनन्द मठ उपन्यास से लिया गया है वह

मुसलमानों के खिलाफ लिखा गया है।

इन आपत्तियों के मद्देनजर सन् १९३७ में कांग्रेस ने

इस विवाद पर गहरा चिन्तन किया।

जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में गठित समिति जिसमें

मौलाना अबुल कलाम आजाद भी शामिल थे, ने पाया

कि इस गीत के शुरूआती दो पद तो मातृभूमि की प्रशंसा

में कहे गये हैं, लेकिन बाद के पदों में हिन्दू देवी-देवताओं

का जिक्र होने लगता है; इसलिये यह निर्णय लिया गया

कि इस गीत के शुरुआती दो पदों को ही राष्ट्र-गीत के रूप

में प्रयुक्त किया जायेगा। इस तरह गुरुदेव रवीन्द्र नाथ

ठाकुर के जन-गण-मन अधिनायक जय हे को यथावत

राष्ट्रगान ही रहने दिया गया और मोहम्मद इकबाल के

कौमी तराने सारे जहाँ से अच्छा के साथ बंकिमचन्द्र

चटर्जी द्वारा रचित प्रारम्भिक दो पदों का गीत

वन्दे मातरम् राष्ट्रगीत स्वीकृत हुआ।

स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद ने संविधान

 सभा में २४ जनवरी १९५० में वन्दे मातरम्को 

राष्ट्रगीत के रूप में अपनाने सम्बन्धी वक्तव्य पढ़ा

जिसे स्वीकार कर लिया गया।

डॉ॰ राजेन्द्र प्रसाद का संविधान सभा को दिया गया

वक्तव्य इस प्रकार है) शब्दों व संगीत की वह रचना

जिसे जन गण मन से सम्बोधित किया जाता है,

भारत का राष्ट्रगान है; बदलाव के ऐसे विषय, अवसर

आने पर सरकार अधिकृतकरे और वन्दे मातरम् गान,

जिसने कि भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में ऐतिहासिक

भूमिका निभायी है; को जन गण मन के समकक्ष

सम्मान व पद मिले। (हर्षध्वनि)। मैं आशा करता हूँ

कि यह सदस्यों को सन्तुष्ट करेगा।

(भारतीय संविधान परिषद, द्वादश खण्ड, २४-१-१९५०)

 

संस्था द्वारा प्रकाशित करने का उद्देश्य युवा वर्ग में

राष्ट्रप्रेम की भावना जागृत कर

सामज को वन्देमातरम राष्ट्रीय गीत को याद करना है ,

मेहनाज़ अंसारी (संस्था संस्थापक)